परोसी झोलत हावय जोंधरा ।।
लोटा धर आईन मीठ-मीठ गोठियाईन
हमरे पीड़हा पानी हमरे ला खाईन
कर दीन पतरी मा भोंगरा ।
घर गय दुवार गय, गय रे खेती खार
हमन बनिहार होगेन, उन सेठ साहूकार
बांचीस नहीं रे हमर चेंदरा ।
सुते झन राहव रे अब त जागव
चलव संगी जुरमिल हक ला मांगव
खेदव रे तपत हॉंवय हुड़का बेंदरा ।
-राजकमल सिंह राजपूत
दर्री – थान खम्हरिया
मो. 9981311462
MOLA AY KAVITA PAGAR KE BAHUT ACHHA LAGISH
बहुत सुग्घर कविता हे जी। छत्तीस गढ़िहा मन के पीरा ल आप बने समझत हो
Jondhara torana au bendara Bhgana Hai.thank s
राजकमल जी आप की अनुपम रचना छत्तीसगढ़ियो के आजपर्यंत तक हुए शोषण की पीड़ा कप दिखाती है…आज समाज को ऐसे ही जागृत करने वाले रचनाओ की आवशयकता है आपको गाड़ा गाड़ा बधाईया